19-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन

सिम्पल बनो, सैम्पल बनो

आज यह जो संगठन हुआ है, इसको कौनसा संगठन कहेंगे? इस संगठन का नाम कर्म के प्रमाण कौनसा कहेंगे? कर्त्तव्य के आधार पर नाम बताओ? (हरेक ने नाम बताये) जो सभी नाम बोले वह प्रैक्टिकल में अपना कर्त्तव्य समझकर बोला? प्रैक्टिकल में चल रहे हैं तो फिर क्या हो गये? सपूत और सबूतमूर्त। अगर प्रैक्टिस में हैं तो सबूतमूर्त नहीं कहेंगे, प्रैक्टिकल में हैं तो सपूत और सबूतमूर्त दोनों ही हैं। यह ग्रुप सिम्पल और सैम्पल है। सिम्पल बनकर सैम्पल दिखाने वाले। सिम्पल कोई ड्रेस आदि में नहीं लेकिन सभी बातों में सिम्पल बन सैम्पल बनने वाले। जैसे कोई भी सिम्पल चीज़ अगर स्वच्छ होती है तो अपने तरफ आकर्षित करती है। इस रीति से मन्सा में भी जो संकल्प है, सम्बन्ध में, व्यवहार में भी और रहन-सहन में भी सभी में सिम्पल और स्वच्छ रहने वाले सैम्पल बन अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। अगर संकल्प में वा सम्बन्ध में सिम्पल नहीं होंगे तो आल्टरनेट क्या होंगे? सिम्पल अर्थात् साधारणता। साधारणता में महानता हो। जैसे बाप साकार सृष्टि में सिम्पल रहते हुए आप सभी के आगे सैम्पल बने ना। अति साधारणता ही अति महानता को प्रसिद्ध करती है तो साधारणता अर्थात् सिम्पल नहीं तो प्राब्लम बन जाते हैं। संकल्पों के भी प्राब्लम में रहते हैं। रहन-सहन भी सिम्पल न होने के कारण औरों के लिए वा अपने लिए कोई न कोई प्राब्लम बन जाते हैं। तो प्राब्लम बनना है वा सिम्पल बनना है? प्राब्लम वाले सिम्पल नहीं बन सकते। तो मन्सा में भी सिम्पल हों। अगर कोई मन्सा में भी उलझन है अर्थात् प्राब्लम है तो उसको सिम्पल कहेंगे क्या? जैसे देखो, गाँधी को सिम्पल कहते थे, लेकिन सिम्पल बनकर के एक सैम्पल बन कर तो दिखाया ना। उसकी सिम्पल एक्टिविटी ही महानता की निशानी थी। वह हो गया हद का एक्ट। लेकिन यहाँ है बेहद के बाप के बच्चे बन बेहद की एक्ट करना। तुम तो विश्व के निमित्त हो ना। जैसे विश्व बेहद का है, बाप बेहद का है, वैसे ही जो भी एक्ट करते हो वह बेहद की स्थिति में स्थित होकर एक्ट करना है। वह एक्ट ही अपने तरफ अट्रेक्ट करता है। तो आकर्षण-मूर्त बनने के लिए क्या करना पड़े? सिम्पल बनना पड़े। यहाँ दैवी सम्बन्ध में भी अगर कोई सिम्पल नहीं बनता, प्राब्लम बन जाता है तो रिजल्ट क्या होती है? स्नेह और सहयोग से वंचित रह जाते हैं। जो साधारण, सिम्पल होते हैं उसके तरफ न चाहते हुए भी सभी को स्नेह और सहयोग देने की शुभ भावना होगी। तो सर्व स्नेही वा सर्व से सहयोग प्राप्त करने के लिए वा सर्व के सहयोगी बनने के लिए सिम्पल बनना बहुत आवश्यक है। कोई प्राब्लम तो नहीं है वा स्वयं प्राब्लम बने हुए तो नहीं हो? चाहे लौकिक परिवार में वा व्यवहार में, चाहे दैवी परिवार में - कब भी अपने में प्राब्लम न इमर्ज करो, न कोई के लिए प्राब्लम बनाओ। अगर प्राब्लम बनते हो तो सेवा लेने वाले बन जाते हो। आप हो ईश्वरीय सेवाधारी, तो सेवाधारी अर्थात् सेवा करने वाले, न कि सेवा लेने वाले। अगर सेवा लेने वाले बनते हो तो नाम प्रमाण कर्त्तव्य नहीं हुआ ना। खुदाई-खिदमतगार सेवा लेता नहीं, देता है। क्योंकि दाता के बच्चे हैं ना। जैसे बाप कुछ लेते हैं क्या? वह तो दाता है ना। अगर प्राब्लम बनने के कारण सेवा लेते हो तो दाता के बच्चे ठहरे? कोई भी प्रकार की अगर एक्स्ट्रा सेवा लेते हो तो यह कभी भी नशा नहीं रहेगा कि हम दाता वा वरदाता के बच्चे हैं।

तो यह प्रवृत्ति वाला ग्रुप है कि निवृत्ति वाले हैं? लौकिक प्रवृत्ति तो समाप्त हुई ना। लौकिक प्रवृत्ति को भी ईश्वरीय प्रवृत्ति में परिवर्तन किया है? जब तक परिवर्तन नहीं किया है तब तक अलौकिक स्थिति में एकरस नहीं रह सकते। इसलिए कहा था कि अपना नाम, रूप, गुण और कर्त्तव्य सदैव याद कर फिर प्रवृत्ति में रहो, जिससे लौकिक प्रवृत्ति परिवर्तन हो। सदैव अपने को सेवाधारी समझने से रोब नहीं रहेगा। सेवाधारी सदैव नम्रचित्त, निर्माण रहता है और अपने घर को भी घर नहीं लेकिन सेवा-स्थान समझेगा। और सेवाधारी का मुख्य गुण है त्याग। अगर त्याग नहीं तो सेवा भी नहीं हो सकती। त्याग से तपस्वीमूर्त बनते हो। सेवाधारी का कर्त्तव्य है सदैव सेवा में रहना। चाहे मन्सा सेवा में रहे, चाहे वाचा सेवा में रहे, चाहे कर्मणा सेवा में रहे लेकिन सेवाधारी अर्थात् निरन्तर सेवा में तत्पर रहने वाले। वह कभी भी सेवा को अपने से अलग नहीं समझेंगे। निरन्तर सेवा का ही ध्यान रहेगा। इसको कहते हैं सेवाधारी। तो अपने को सेवाधारी समझो और सेवा-स्थान समझकर रहो, त्याग वृत्ति वाले तपस्वीमूर्त होकर रहो। निरन्तर सेवा की ही बुद्धि में लगन रहे तो फिर लौकिक प्रवृत्ति बदल कर ईश्वरीय प्रवृत्ति नहीं हो जायेगी? तो यह ग्रुप नवीनता क्या दिखायेगा, जो कोई ग्रुप ने न दिखाई हो? कोई-न-कोई नवीनता ज़रूर लानी है। खास भट्ठी में आते हो तो अपने में परिवर्तन भी खास होना चाहिए। वैसे तो चलते-फिरते हो लेकिन अब खास विशेषता लाकर अपना नाम विशेष आत्माओं में जमा करा के जाना। बापदादा के पास कितने प्रकार की लिस्ट है, मालूम है? आपका किस लिस्ट में नाम है, यह मालूम है? अपना नाम विशेष आत्माओं में कर सको, इसका प्रयत्न करो। विशेष आत्मायें तब बनते हैं जब कोई विशेष कर्त्तव्य करते वा विशेषता दिखाते हैं। तो विशेष आत्मा बन करके ही जाना। मरजीवा बने हुए हो वा बनने के लिए आये हो? मरजीवा बनकर ही ब्रह्माकुमार बने वा अभी बनेंगे? जब मरकर के जन्म लिया तब तो ब्रह्माकुमार कहलाया। मरकर नया जन्म लेना इसको ही मरजीवा कहते हैं ना। नहीं तो जन्म लेने से पहले ब्रह्माकुमार कैसे बने। बच्चे तो हो, अधिकारी हो। बाकी है सपूत बन कर सबूत देना। बाकी ब्रह्माकुमार हैं तो मरजीवा तो बन ही गये। मरजीवा बने हुए हैं यह स्मृति में रहने से फिर यह शरीर भी आपका नहीं रहा। यह शरीर बाप ने ईश्वरीय सर्विस के लिए दिया है। आप तो मर चुके हो ना। लेकिन यह पुराना शरीर सिर्फ ईश्वरीय सर्विस के लिए मिला हुआ है, ऐसे समझकर चलने से इस शरीर को भी अमानत समझेंगे। जैसे कोई की अमानत होती है तो अमानत में अपनापन नहीं होता है, ममता भी नहीं होती है। तो यह शरीर भी एक अमानत समझो। तो फिर देह की ममता भी खत्म हो जायेगी। जैसे ट्रस्टी हो रहने से, अमानत समझने से ममता कम होती है ना। इस रीति यह शरीर भी सिर्फ ईश्वरीय सर्विस के लिए अमानत के रूप में मिला हुआ है। जिसकी अमानत है उनकी स्मृति, अमानत को देखकर तो आती है ना। अमानत रखी हुई चीज़ को देख, देने वाले की याद आती है ना। यह तो अमानत रूहानी बाप ने दी है, रूहानी बाप की याद रहेगी। अमानत समझने से रूहानियत रहेगी और रूहानियत से सदैव बुद्धि में राहत रहेगी,थकावट नहीं होगी। अमानत में ख्यानत करने से रूहानियत के बदली उलझन आ जाती है, राहत के बजाय घबराहट आ जाती है। इसलिए यह शरीर है ही सिर्फ ईश्वरीय सर्विस के लिए। अमानत समझने से आटोमेटिकली रूहानियत की स्थिति रहेगी। यह सहज उपाय है ना। अब निरन्तर सहज योगी बन सकेंगे ना। निरन्तर रूहानियत की अवस्था में स्थित रहो, यह नवीनता दिखाना जो आप लोगों को देख कर सभी अनुभव करें कि यह तो सैम्पल बन कर आये हैं। औरों को भी याद की यात्रा सहज बनाने के लिए सैम्पल बन कर जाना। यह ग्रुप सैम्पल बनकर जायेंगे ना।

अगर एक-एक स्थान पर एक सैम्पल जायेगा तो फिर सिम्पल बात हो जायेगी। अपना नाम क्या याद रखेंगे? सेवाधारी। सेवाधारी तो हो ही लेकिन सेवा ऐसे करो जो प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति करा सको। तो सलोगन क्या याद रखेंगे? अपनी रूहानियत की स्थिति प्रत्यक्ष कर हर आत्मा को प्रत्यक्ष फल दिलाने वाले। यह है इस ग्रुप का कर्त्तव्य। जितना अपनी रूहानियत की स्थिति को पक्का करेंगे उतना प्रत्यक्ष फल दे सकेंगे। अगर रूहानियत की स्थिति को प्रत्यक्ष नहीं दिखाते तो फल भी प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता। प्रत्यक्ष फल दिखाने के लिए अपनी रूहानी स्थिति को प्रत्यक्ष करो। समझा, सलोगन। अच्छा। अपने ऊपर छाप कौनसी लगाई? सेवाधारी समझा ना, मन्सा में भी सेवा। और यह ग्रुप मुख्य त्याग क्या करेगा जिस त्याग से तपस्वी बन सको? आप की प्रैक्टिकल दिनचर्या में बहुत करके विघ्न रूप क्या होता है? एक शब्द में इसको कहेंगे रोब। इसलिए रूहानी रूहाब नहीं आता है। प्रवृत्ति में जो रोब रखते हो ‘मैं रचयिता हूँ’ वा व्यवहार का भी जो रोब रहता है, सम्बन्ध में भी मुख्य विघ्न रोब आता है। इसका त्याग करना है। सेवाधारी रोब नहीं दिखाते। इसलिए रोब का त्याग करना है। यह है मुख्य त्याग। हिम्मत तो है ना त्याग की। जो भी वायदे करते हो, एक-एक वायदे पर अविनाशी की छाप लगाओ। अविनाशी छाप न लगाने के कारण वायदे अल्पकाल के लिए हो जाते हैं। कइयों की रिजल्ट में यह दिखाई देता है कि यहाँ वायदे करके जाते हैं, फिर वायदे बदलकर विलाप करने लग पड़ते - क्या करें, क्या हो गया, अब मदद दो। चाहते तो नहीं हैं लेकिन यह कारण बन गया। योगी के बदले वियोगी हो विलाप करते हैं। तो अब निरन्तर योगी बनना। विलापों वाले वियोगी नहीं बनना। यह ग्रुप यही प्रैक्टिकल करके दिखाये। जो कहा है वही करेंगे, चाहे कितनी भी बातें सहन करनी पड़ें, लेकिन सामना करके दिखायेंगे। विजयी बनकर के ही दिखायेंगे, एक दो के मददगार, शुभ चिन्तक बनते रहें तो सहयोगी बन क्या नहीं कर सकते हैं! जब वह एक दो के सहयोगी बन घेराव डाल सकते हैं, तो क्या आप माया को घेराव नहीं डाल सकते। पाण्डव सेना घेराव नहीं डाल सकती? एक दो के शुभचिन्तक, सहयोगी बनते रहें तो माया की हिम्मत नहीं जो आपके घेराव के अन्दर आ सके। यह है सहयोग की शक्ति। यह संगठन है सहयोग की शक्ति का। यह संगठन के सहयोग की शक्ति का प्रत्यक्ष रूप दिखाना। अच्छा।